ज़मीं अपनी नहीं समझे,बता फिर आसमाँ कैसा
मिला था एक मौका ये समझने का ,जहाँ कैसा
ख़ता ये थी कि हमने साथ चलने की क़सम खाई
सज़ा के तौर पर ये बेवफ़ाई का गुमाँ कैसा
कभी जब आइना मग़रूर हो तो बात मत करना
हक़ीक़त है बज़ाहिर, कल ख़यालों में निहाँ कैसा
अजब दस्तूर देखा है अदालत में सियासत का
जहाँ हक़ बोलने तक का नहीं,फिर सचबयाँ कैसा
बहुत दिनसे हवामें ख़ुशबुओं की कुछ कमी सीहै
मगर तू ही बता हाले-चमन ,ऐ बाग़बाँ कैसा
यहाँ हालात बद्तर हैं,शहर से आदमी ग़ायब
न जाने, गाँव में होगा, तुम्हारा हाल माँ कैसा
मुहब्बत एक जज़्बा है,हुआ तो हो गया लेकिन
निभाने के लिये होगा न जाने इम्तहाँ कैसा