अनिरुद्ध रॉय चौधरी निर्देशित मूवी ‘पिंक’ कई मायने में शूजित सरकार से प्रभावित होकर भी अलग छाप छोड़ने में सफल रहा है। दिल्ली शहर के बहाने यह फिल्म हर उस इंडियन सिटी की दास्तां व्यक्त करता है, जहाँ की नयी पीढ़ी घर की दहलीज से बहार निकल कर काम करने की हिमाकत करता है। नारी पहचान का यहि संघर्ष मुखर होकर सिनेमा के जरिये बाहर आया है, जहाँ ‘ब्लू’ संवर्ग वाले युवा पीढ़ी ‘पिंक’ को सिर्फ भोग का वास्तु समझते आ रहे हैं।
नाव-धनाढ्य पार्टी में शिरकत करने वाली लड़की आचरण से शरीफ हो सकती है, ऐसा हम नहीं मानते और लड़की की बॉडी लैंग्वेज को आधार मान उसे सहज उपलब्ध अगला कदम उसकी ओर सहज बढ़ा देते हैं। इस ‘ब्लू’बनाम ‘पिंक’की लड़ाई सोच के लेवल पर जन्मती है, जहाँ हमारा समाज सरे नियम लड़कियों को ध्यान में रख कर बनाता है और यही समस्या का मूल कारन भी है। अधिवक्ता दीपक की भूमिका में अमिताभ बच्चन पहले पड़ोसी का रोले नभाते हैं और तार्किक रूप से अधिवक्ता के किरदार ने आज लड़कियों की जगह लड़कों पर पहनावे, व्यवहार, आचरण पर कण्ट्रोल करने का सिफारिश करता है, ताकि लड़कियां सहज रूप से रह सकें।
इस फिल्म के क्लाइमेक्स में एक लड़की के ‘न’कहने की सही व्यख्या की गयी है, जो पति, प्रेमी, परिचित, अनजान सभी लोगों पर सामान रूप से लागू होता है। यह ‘ना’की शक्ति अपने आप में एक संपूर्ण वाक्य भी है, जिसे हमे स्वीकार करना ही होगा।
मीनल के किरदार में तापसी पन्नू, फलक बानी कीर्ति कुल्हारी और एंड्रिया ने अपने किरदार से न्याय किया है। नेता के भतीजे और मोलेस्टर बने अंगद बेदी नोटिसेबल हैं। वहीँ विरोधी पंच के वकील पियूष मिश्र ठीक-ठाक हैं।
कुल मिलाकर, मनोरंजक होने के साथ ही विचारधारा के अस्तर पर हमें ना सिर्फ सोचने को विवश करता है, बल्कि सामाजिक ‘ब्लू’के खिलाफ ‘पिंक’ की लड़ाई में जीत के तरफ पहला कदम भी है। यह कामकाजी महिला जो घर की चारदीवारी से अलग उसी शहर या दूसरे शहर में पहचान के संघर्ष से जुड़ी हो, उसे निस्चय ही आगे बढाता है | परिवार के साथ देखने योग्य फिल्म का स्वागत है……………………