जल्दी-जल्दी मै स्टेशन पंहुचा और शुकून की साँस लेने के बाद घड़ी की तरफ नजर दौड़ायी, जो मेरी जीत और ट्रेन की हार की तरफ इशारा कर रही थी . अभी मै स्टेशन पर कही बैठने की जगह ही ढूढ रहा था की रेलवे की उद्घोषणा मुझे सुनाई दी जो मेरे ट्रेन आने की सुचना दे रही थी. मै सीट दूँढते- दूँढते लगभग स्टेशन के दुसरे छोर पर पहुचने वाला था तभी मेरी नजर एक लम्बे सामान की कतार पर पड़ी और लगभग हर एक सामान के पास लोग बैठे थे. कुछ पुलिस वाले कतार के पास घूम रहे थे, मेरे ख्याल से कतार में कोई गड़बड़ी न हो शायद यह देख रहे हो. तभी मेरी नजर कोच बताने वाले बोर्ड पे गई जिसपर जनरल लिखा था. मुझे समझते देर न लगा की यहाँ क्या हो रहा है. मेरे सोच को मेरे फ़ोन के मेसेज रिंग ने तोड़ दिया. मैंने अपना मोबाइल निकला, सिंह साहब(जिनसे मै मिलने जा रहा था) का मेसेज था वो किसी काम से निकल रहे थे और हमारी मीटिंग कैंसिल हो गयी थी.
अब मै लौटने के बारे में सोच ही रहा था तभी एक पुलिस वाला मुझसे धीरे से पूछा सीट चाहिए?…….. मै ना में जवाब देने ही वाला था तभी मेरे कानो में 300 सुनाई दिया. मै हतप्रभ नही हुआ और प्यार से खाकी वर्दी वाले ट्रेन कंडक्टर को “ना” में सर हिला दिया. पर दिमाग में ये बाते चलने लगी की जब सीट 300/- में मिलेगी तो तो इन कतार में लगे लोगों के विश्वास का क्या होगा, जो ये सोच-सोच के खुश हो रहे है कि वो पहले न. पर उनकी सीट तो पक्की है और अपने सुखद यात्रा की कल्पना कर के रोमांचित हो रहे है.
अब ट्रेन आने वाली थी पर मेरी उतेजना बढ़ रही थी. मै अब इन कतारबद्ध दोस्तों को विदा कर के लौटने का मन बन लिया था
ट्रेन आयथावत स्थान पर लग गई. पुरे जनरल डिब्बा का गेट भीतर से बंद था. कतारबद्ध लोग बड़ी सुकून के साथ खड़े थे की जैसे ही गेट खुली उन्हें तो सीट मिलनी ही है. तभी गेट खुला और उसमे से भी एक मोटे और तोंदू पुलिसवाले निकले और गेट से एक-एक कर कतार को अन्दर भेजने लगे पर भगदड़ तो होनी ही थी. कुछ पुलिसवाले कतार के पीछे वाले लोगो से रुपया लेकर उन्हें आगे लाते और गेट पर खड़े पुलिसवाले कतार वालो को रोक के उन्हें ट्रेन में पहले घुसा दे रहे थे. मै तो सिर्फ एक कोच को देख रहा था बाकि सब कोच में भी यही हो रहा था. कुछ देर में जनरल डिब्बा पूरी तरह भर गया और कतार ख़त्म भी नही हुइ थी तब पुलिसवाले वहाँ से हट गये और लोग धक्का मुक्की कर के चढ़ने लगे. कुछ देर बाद ट्रेन खुली और स्टेशन एक बार फिर वीरान हो गया. कुछ पुलिसवाले के सिवा लगभग कोई नही था.
मुझसे रहा नही गया मैंने एक पुलिस वाले से पूछ ही दिया, तब सर आज तो अच्छी कमाई हो गई? यह सुनते ही वह समझ गया की मैंने सब देख लिया है. वो मुस्कुरा कर अपनी सफाई में बड़े जोश के साथ दो तिन मिनट तक कुछ बंगाली में बोला जिसका मतलब ये था कि उसका भी सपना है उसके बच्चे अच्छे स्कूल में पढ़े. उसका शहर में माकन हो. उसके पिताजी तो पूरी जीवन एक चार पहिया खरीदने के लिए तरसते रहे वो कार से घुमे. अगर मुझे मौका मिल रहा है जिससे मै अपने परिवार वालो को खुश रख सकू तो मै उस मौका को क्यों छोडू. आखिर सब अपने परिवार के लिए ही तो कमाते है.
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उसके गुस्से में बोलने के अंदाज से मै वहाँ रुकना मुनासिब न समझा और स्टेशन के बाहर जाने लगा. कुछ देर के लिए मुझे लगा की शायद ये पुलिस वाला भी सही है. वो तो अपने माता-पिता, बच्चे एवं अपने प्रियेजनो के प्यार के वश में होकर ये गलत काम कर रहा है. इतिहास गवाह है जब द्रोणाचार्य अपने शिष्य को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के लिए दुसरे धनुर्धर की अंगूठा ले सकते है तो ये पुलिस वाला अपनी तरक्की के लिए अगर घुस लेता है तो इसमें बुराई ही क्या है.
लेकिन कुछ पल और सोचने के बाद मेरे सामने से फरेब के बादल हटने लगे थे और सच्चाई सामने आ रही थी. वह पुलिस वाला अपने आप को अपने परिवार तक ही समेट कर रखा था उसकी सोच संकीर्ण थी. अगर वह पुरे देश को अपना परिवार मानता, अपनी डिपार्टमेंट सम्मान को अपनी मान समझता, तो शायद ऐसा नही करता.
हम इस झूठे प्यार और मोह माया में इतने फास चुके है की हम सच्चा प्यार नहीं देख पा रहे है.वो धरती वो समाज जिसका बहुत सारा अहसान है हमपे, हम उसके प्यार को भुला कर , अपने कर्तव्य से मुख मोड़ कर अपने भविष्य की मिर्गत्रिशंना के लिए भ्रष्टाचार फैला रहे है.
मेरे नजर में भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है “संक्रिन सोच”.अगर हम अपने सोच बृहद करे तो हम कुछ हद तक इन गलत काम करने से बच जायेंगे.अपने आप को “बिहार का” या “भारत का” न कहकर अगर हम अपने आप “पृथवीवासी”से प्रस्तुत करे तो इस पूरी संसार में क्रांति आ जाएगी. और भ्रष्टाचार और अन्य सामाजिक बुराइयाँ बहुत ही छोटी समस्या हो जाएगी.
बहूत खूब
कट्टु परन्तु सत्य