बहुत दिनो बाद मुझे ग़ाव जाने का मौका मिला, सुबह-सुबह उठा गाड़ी निकाली और निकल पड़ा. मेरा ग़ाव शहर से 65 km की दुरी पर है. मैंने खुद ही ड्राइव करते हुए निकल गया. मैंने अपने मंपस्न्दिदा किशोर दा की गाने के साथ ड्राइव का मजा लेते हुए जा रहा था. मेरे ग़ाव से 10 km पहले एक छोटा सा बाज़ार है. मै वहाँ रुका, गाड़ी को साइड में लगाया और चाय-पकौड़े का मज़ा लिया और चल दिया. अब रास्ते पतले थे, शायद प्रधानमंत्री ग्रामिण सड़क योजना के तहत बनाई गई थी. मेरे ग़ाव से 5-6 km पहले एक पुल है जो पतला और लम्बा है, उस पर एक बार में सिर्फ एक ही गाड़ी पार कर सकती है. मै उस पुल के करीब पंहुचा पुल पे कोई गाड़ी विपरीत दिशा से नही आ रही थी. मैंने जैसे ही पुल पर चढ़ा सामने से एक जिप्सी आते दिखाई दी जो अभी पुल से कुछ दुरी पे थी. मैंने उससे पासिंग लाइट दिया और पुल पार करने लगा. मैं आधी पुल पुल पार कर चूका था तभी सामने वाली गाड़ी भी पुल पे आ गई और अगले कुछ ही पल में मेरे गाड़ी से 2 मीटर के फासले पे आकर रुक गई. मैं भी अपनी गाड़ी रोक चूका था. मुझे ये बात बहुत अटपटी लगी और गुस्सा भी आया. मैंने गाड़ी को देखा गाड़ी में लगभग 5-6 लोग बैठे होंगे. आगे एक पतला 22-23 साल का लम्बा बालोँ वाला गुटखा चबाते हुए ड्राईवर और उसके बगल में कुर्ता पहने हुए काला चश्मा लगाय हुए एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति बैठा था और पान चबा रहा था और पीछे 3-4 लोग होंगे और गाड़ी के आगे एक प्लेट लगा हुआ था जिस्पे लिखा हुआ था मुखिया. जिप्सी का ड्राईवर मुझे पीछे जाने का इशारा कर रहा था. मैंने भी वही इशारा दुहरा दिया. तब तक पीछे से 2 लोग उतर कर आये और मुझे कहा “गाड़ी पीछे कर समझ में नही आ रहा का” मै समझ गया ज्यादा ताव दिखाया तो लाठी से मार नहीं सकता और कलम से मारनेलायक नही बचूंगा. मैंने रिवर्स गियर लगाया और गाड़ी पीछे कर्न्ने लगा. जिप्सी भी मेरे साथ ही आगे बढ़ रही थी. अब मै पुल के बहार था और गाड़ी बड़ी तेजी से निकल गई. फिर मै बड़ी तेजी से उस पूल को पार किया. अपने ग़ाव पंहुचा और सारी बाते अपने काका को बताई. उन्होंने भी उसकी चार पांच कहानिया सुनाई जिससे ये साफ़ पता चला की मुखिया जी को मुखिययी सर पर चढ़ चुकी है.
अपना काम पूरा होने के बाद मैंने शहर को निकल पड़ा. रस्ते में उसी मुखिया जी के बारे में सोच रहा था तभी अचानक मेरे बचपन की एक बात याद गई. जब मै 10-12 साल का था. मेरे चाचा जी मुखिया का चुनाव लड़ने को जिद पकडे थे, तो मेरे बाबा जी ने उन्हें बहुत ही प्यार से समझाया देखो बेटा मै तुमसे कुछ प्रश्न पूछूँगा और फिर जबाब देते वक्त तुम अपने आप को अजमाना अगर फिर भी लगेगा तुम उस लायक हो तो फिर मै नही रोकूंगा. “ मै इस घर का मुखिया हु , मैंने इस परिवार के लिए जो किया हु क्या तुम वो सब इस ग़ाव के परिवार वालो के लिए करोगे?” अगले ही दिन मेरे चाचा ने अपना राय बदल दिया पर इस वादे के साथ की अगली बार जरुर लड़ेंगे अगर उस लायक हो गय तब.
कैसी विडम्बना है एक व्यक्ति जिसे हम अपना मुखिया चुनते है इस उमीद से की वो हमारी पूरी ग़ाव की भलाई के बारे में सोचेगा पर वह व्यक्ति ग़ाव का मुखिया का कर्तव्य कम और अपने घर का मुखिया होने का कर्तव्य ज्यादा निभाता है.
ये बाते सिर्फ मुखिया या सरपंच पर सिमित नही है. पुरे राजनीती का यही आलम है. आधों को तो अपना कर्तब्य ही नही पता और अगर आधों को पता है तो पॉवर मिलने के बाद अपना कर्तव्य पूरा नही कर पाते. अगर हम सब अपनी जिमेदारी समझ ले तो हमारा भारत फिर एक बार “सोने की चिड़िया” बन जायेगा.