जुगणुयों जैसा था मैं,
छोटा सा परन्तु प्रकाशवान, लघु सा,
पर विचरने वाला पूरा अकल्पनीय अथाह आसमान,
ताजे हवाओं की भांति यहाँ से वहाँ गतिमान,
सपने थे कुछ मेरे भी, लक्ष्यों से परे, दिलों की मंजिले सरीखे,
अपनों में पला, बढ़ा, सबकी आंखों का तारा,
माँ का प्यार, बाबा का अभिमान,
भाई-बहनों का भरोषा, दोस्तो का गुमान।।
फिर तुम आयी, एक तितली की मानिंद मेरे इस स्वप्निल खुशनुमा जिंदगी मे,
बिल्कुल ताज़ी फूलों की खुशबू जैसी, महादेव के जटाओं पर चमकते हुए चाँद सी शीतल,
महाकाल के ताप को ठंडक पहुचाने वाली उनकी जटाओं से निकलती गँगा सी स्वच्छ और निर्मल।
शायद हमें कभी न मिलना था,
पर शायद मंजूर होनी को कुछ और था,
किस्मत ने कुछ अनूठा सोच रखा था शायद हमारे लिए।
हम मिले, मैंने तुम्हें जाना,
तुमने भी मुझे समझने की कोशिशें तमाम की,
हम करीब आये, मैं-तुम अब हम बने।
सफर शुरू हुया,
कारवां आगे बढ़ा,
काफिला बनता गया।
मंजिले तय हुई,
सफर बढ़ा,
हमसफर सा कोई मुझे भी अपना मिला।
मेरी खुशियाँ,
अब तुम्हारी खुशियों में ही होने लगी,
तुम्हारे गम, अब मेरे लिए मेरे गम हो लिए,
तुम हमारे हुए न हुए,
हम पूरी तरह तुम्हारे जरूर हो लिए।
मेरे सपने अब मेरे खुद के न रहे,
तुम्हारे सपने मेरे आंखों में सजने-संवरने लगे,
सपने हमारे अब धीरे धीरे ही सही पर पूरे होने लगे।
फिर एक ऐसा दौर आया,
दो दिलो के बीच अंधकार घना घनघोर छाया।।
तुझे पूरा करने की तमाम कोशिशों के बीच,
मैं खुद अधूरा सा होने लगा था।
शायद अब अपनी ही बनाई उस भीड़, में खोने सा लगा था,
हाथ मेरा अब,
तुम्हारी नाजुक कलाइयों के मजबूत पकड़ से भी छूटने सा लगा था।।
अब हमारे हम में भी ” अहम ” होने लगा था,
हमारे दरमियान तेरा-मेरा, मेरा-तेरा,
के भावों का निर्माण होने लगा था,
वो सपने, वो मंजिले,
अब कही बीच सफर में ही खोने लगी थी,
अब सफर सफर सा ना था,
कारवां भी बीच मंजिल ही खोने लगा था।
मेरी अच्छाइयों के बीच,
मेरी कुछ बुराइयां तुम्हे खलने लगी थी।
पनपती मोह्ब्बत को तुम,
पिंजरे में बंद परिंदे की कैद सरीखी समझने लगी थी।
अब तुम्हे मुझसे परे सबकी समझ आने लगी थी,
हमारे सपने और तुम्हारे सपने में तुम,
मुझे अब फर्क समझाने लगी थी,
अपनो परायों में तुम अब सिमट जाने लगी थी,
मुझे समझने की तुम्हारी कोशिशें भी तुम्हे अब बेमानी लगने लगी थी।।
फिर वो दौर भी आया,
जब तुम नए मंजिले गढ़ने लगी थी,
मुझे परे रख,किसी और को समझने लगी थी।
पहले सिर्फ तुम से हम, हम से तुम, और अब मुझ से अलग ” तुम्हारे हम ” का निर्माण होने लगा था।
अब सामने मेरे ही मेरी खामियां और किसी गैर के अच्छाइयों का बखान होने लगा था,
तुम्हारे सामने, मेरे ही अभिमान का तुमसे ही अपमान होने लगा था।
दुनिया तुम्हारी अब फिर से सजने लगी थी,
फिर से तुम्हारे निर्मल और शीतल मन मे किसी गैर के बाँसुरी की मीठी धुन बजने लगी थी।
अब तुम्हारा सफर नया तय होने लगा था,
कारवां तुम्हारा भी उसके साथ आगे बढ़ने लगा था।
मैं तो कब का पीछे रह गया था,
एक जुगनू सा,
मैं आज फिर से खो अपने नाजुक पंखों को।
किसी घासों के घने जंगलों मे अपने दम तोड़ रहा था,
पर तुझे क्या,
तू तो मुझे अपने पीछे मेरी मौत मरने को छोड़ रहा था।
आज फिर से मेरे अपने सपने बिखरे पड़े टूटे थे,
तेरे पीछे मेरे अपनें भी मुझसे सदियों पहले कोशों दूर पीछे ही छुटे पड़े थे।
शायद मैं अब अपनो के लिए,
अपनो के ही हाथों मारा जा रहा था।
खंजर भी मेरा, दिल भी मेरा, मेरे दिल से ही बार बार मेरे दिल को भेदा जा रहा था,
शायद मैं तुझे किसी गैर के साथ सोच,
अपनी ही मौत मरा जा रहा था।
अब तू मुझे पीछे छोड़ मुझसे काफी आगे निकल चुका था,
तेरे पीछे,
बिन रूह जिस्म मेरा भी ठंडा हो कर सिकुड़ चुका था।
आंखे मेरी गहरे आसमानों की काली घनी गहराइयों में खो रही थी,
शायद रूह मेरी आज सारे बंधनो से आजाद हो रही थी।
रूह मेरी आजाद हो फिर से एक जुगनू की भांति उड़ चला था किसी नए जीवन की तलाश में,
किसी नए सफर पर,
किसी नए तलाश में।।।
-कुणाल_सिंह